न च प्राण संज्ञो न वै पंचवायुः । न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोश ।
न वाक् पाणी पादौ न चोपस्य पायु । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ २ ॥
वायू प्राण है। प्राण एक शक्ती है जो शरीरमे चेतना निर्माण करती है। यह प्राण सर्व सजीवामे होता है। सचेतन दुनिया के एकपेशीय सुक्ष्म जीवसे लेकर, अतिविशाल शार्क मछलीतक एकही प्राण, वही भगवानका अंश होता है। यह प्राण वायूपर अवलंबित रहता है।
एक श्वास सजीवोंमे चैतन्य है या नही यह दिखा देता है। और इसी लिये हम चैतन्यमय प्राण कहते है। इस तरहसे यह प्राण वायूपर निर्भर रहता है। परमात्मा का अंश मतलब आत्मा। आत्मासे निर्माण की हुई शक्ती मतलब प्राण। इसका मतलब यह के प्राण तो परमात्मा का अंश हुआ, परमात्मा का एक भाग हुआ। प्राण के पंचक व्यान, समान, अपान, उदान व प्राण यह है। यह सब तथा वायू मिलकर प्राण अर्थात आत्मा हुआ।
श्री शंकराचार्यजी कहते है के जो प्राण, पंचवायू मतलब आत्मा का एक भाग हुआ वह आत्मा ही परमेश्वरका अंश है। मेरा कुछभी नही है। यह देह, यह शरीर सप्तधातूसे बना है। वह सप्त धातू मतलब रस, रक्त, मेद, स्नायू, अस्थी, मज्जा, तथा शुक्र है। अन मतलब गती। आन मतलब ले जाने वाला, गती देनेवाला।
प्र + आन = प्राण मतलब हालचाल देनेवाला। यह मुख्यतः खून मे होता है।
अप + आन = अपान मतलब नीचे ले जानेवाला। शरीररस मे अपान होता है।
उद + आन = उदान मतलब उपर ले जानेवाला। यह काम स्नायू कर्ते है। इसलिये उदानका काम स्नायूमे होता है।
सम + आन = समान मतलब समतोल बनाये रखना। यह कार्य हड्डी का होता है।
वि + आन = व्यान मतलब विशेष हालचाल जो चरबी तथा मेद का कार्य होता है।
श्री. शंकराचार्यजी कहते है, यह प्राण, वायू, सप्त धातू, यह पंचकोश ये मेरे नही। क्योंकी यह सर्व देहसे संलग्न है। उनका व्यवहार देह के साथ चलता है। देहसे चैतन्य खतम हुआ तो इनका कार्य भी खतम होता है। आत्मासे इनका कुछ भी संबंध नही है। आत्मा जैसा है वैसाही रहता है।
इसही तरह वाक, पाणी, पादौ, चोपस्य, पायु यह सारे शरीरसे, विनाशी तत्वसे संलग्न है। यानी की शरीरके साथ ही उनका व्यवहार चलेगा। देह अथवा शरीर का नाश हुआ, शरीरसे चैतन्य गया, शरीर मृत हुआ तो इनका कार्य भी खत्म होता है। मतलब जो शरीरसे संलग्न है वो शरीरके साथ ही खत्म होते है। श्री. शंकराचार्यजी कहते है के ये सब शरीरके साथही जानेवाले है इसलिये मेरे है ही नही। तो, जो मेरा नही है उसके लिये मुझे कुछ भावना नही है। इसलिये मै मेरे भगवान स्वरूप आत्मा का हूं। मै सिर्फ शिवरूप और शिवरूपही हु। मेरे शरीरका व्यापार चलानेवाला तत्व मेरा नही। शरीरका अस्तित्व, पाच कोष ( अन्नमय, प्राणमय, मनोमय., विज्ञानमय, आनंदमय) मै नही। जिस कर्मेंद्रियके कर्तृत्वका सब को अभिमान होता है वह कर्मेंद्रिय भी अपनी नही। अब मै कुछ बोल भी नही सकता, क्योंकी मेरी वाणी भी मेरी नही है। इसलिये मै जो हू वो मंगलमय शिव ही हु!!
27 December 2008
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