23 November 2008

निर्वाणषटक पर विवेचन - श्लोक १

आद्य श्री. शंकराचार्यजी ने बहोत स्तोत्र तथा षटक संस्कृतमे लिखे है। इन मे वेदसारशिवस्तव, शिवनामावल्याष्टकम्, तथा निर्वाणषटकम् विशेष रुपसे सर्वश्रुत है। चिदानंद रुपम् शिवोहम् शिवोहम् यह उनका निर्वाणषटक जो आत्मषटक इस नाम से भी जाना जाता है।

निर्वाणषटक से संलग्न एक कथा कही जाती है। वो कुछ इस तरह है, एक बार शंकराचार्य अपने गुरूजी से मिलने गये। गुरू अपने कुटीमे बैठे थे। किसे के बाहर आनेकी आहट्से उन्होने अंदरसे ही कुतुहल से पुछा,"कौन है?"। अपने गुरू के इस सवाल का श्री. शंकराचार्यांजीने जो जवाब दिया वो आत्मषटक, निर्वाणषटक इस नाम से भी जाना जाता है।

सर्वसामान्य जन "कौन है?" इस सवाल पर "मै ही हू" यह जवाब दोहराता है। लेकिन श्री. शंकराचार्यजीने सामान्य जन से परे दिया हुआ जवाब उन्हे गुणातीत स्थितप्रज्ञ बना देता है। उनका यही जवाब आत्मषटक कहलाता है। यह निर्वाणषटक हमे बहुत कुछ सिखाता है। अपने गुरूके "कौन है?" इस सवाल का जवाब वह चार पंक्तियोंमे देते है। जवाब के पहली तीन पंक्तियोंमे वह मै कौन नही हू यह बताते है था चौथी पंक्तिमे वह असल मे कौन है यह बार बार दोहराते है। यही उनके इस आत्मषटक की, निर्वाणषटक की, विशेषता है। इस जवाब मे जो एक लय है उससे इन श्लोकोंका अपने मन पर विशेष प्रभाव पडता है। वह सारे आचार्योंसे अलग है, महान है तथा भव्य दिव्य है यह हम समझ सकते है।


मनोबुध्यहंकार चिताने नाहं । न च श्रोतजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योमभूमी न तेजू न वायु । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ १ ॥

इस श्लोक के पहले तीन पंक्तीमे वह क्या नही है वह कहते है। अपना शरीर अष्टधा प्रकृतीसे बना है, इसमे पंचमहाभूत जैसे पृथ्वी, आप, तेज, वायू तथा आकाश इनका समावेश होता है। सूक्ष्म तत्व मे मन, बुध्दी तथा अहंकार इनका समावेश होता है। इसका मतलब यह है के अपना देह पंचमहाभूत तथा मन, और बुध्दी तथा अहंकार इनसे बना है। इन पंचमहाभूतोंसे बना अपना शरीर जीवन के अंत मे इन ही पंचमहाभूतोंमे विलीन हो जाता है। मतलब यह के, जिसका लिया उसी को वापस किया। अपना कुछ है ही नही। पंचमहाभूतोंसे आया और वही वापस चला गया। जो अपना नही है उसे अपना कहना गलत है। वह तो एक प्रकार की चोरी ही हुई। इसलिये जिसका उको वापस देने पर अपने पास इस नश्वर शरीर के सिवाय कुछ रहता नही है। इसलिये इस नश्वर शरीर का खुद का ज्ञानेंद्रिय तथा कर्मेंद्रिय ऐसा कुछ भी नही है। जिस नाक, कान, आंख,जुबान तथा त्वचा के जरिये सुख या दुःख मिला है वह भी मेरा नही है। सुख और दुःख यह मन तथा बुद्धी का खेल है। अगर उनका अस्तित्व सुचित नही होता है तो अहंकार के जरिये मिलनेवाला अहंभाव भी सुचित नही होगा। और इसी वजहसे शंकराचार्यजी मे बसा गुणातीत तथा स्थितप्रज्ञ पुरूष अपना अस्तित्व दिखाता है। जो अपना नही है उसे शंकराचार्यजी अपना नही कहते। फिर बाकी रहता क्या है? इस चराचर सृष्टिमे दो ही चिजे है! एक देह दुसरा देही, एक शरीर दुसरा शरिरी, एक देह दुसरा आत्मा, एक क्षेत्रज्ञ तो दुसरा क्षेत्र, अपना नश्वर देह भी अपना नही है। मतलब यही है के जो अपने पास रहता है वो अविनाशी देही, आत्मा।

वह मात्र इश्वर का अंशरूप। और इसलिये शंकराचार्यजी यहा कहते है के, मै मन, बुद्धी, अहंकार, नाक, कान, जुबान, त्वचा, आंखे, पृथ्वी, आप, तेज, वायू, आकाश इन मे से कुछ भी नही। बाकी रहा प्राण, आत्मा वही मै हू। और यह आत्मा कैसा है? तो वह भगवंतरूप शिवरूप, सत चित आनंदरूप, शिवरूप है।